Bihar Politics: नीतीश कुमार की 'अवसरवादी राजनीति' की गूंज कहां तक

#nitishkumar: बिहार की राजनीति टेढ़ी है। लेकिन सीएम नीतीश कुमार के लिए बड़ी 'सीधी'। मोबाइल सिम पोर्ट करने जैसी। जिसका 'नेटवर्क' अच्छा, वही 'ऑपरेटर' चुनो। जब मर्जी, बदल लो। वे सियासी 'गणित' में माहिर हैं। अपना नफा-नुक्सान साधकर चलते हैं। बीजेपी को गच्चा दे ही दिया। यह पहला मौका नहीं है। 2013 में बीजेपी से अलग हुए। 2017 में महागठबंधन छोड़ा। अब फिर बीजेपी से किनारा। वे पलटते रहे हैं। उनकी फितरत है। अपनी सुविधा अनुसार राजनीति करते हैं। यही वजह है, उनका कोई राजनीतिक दोस्त नहीं। तो दुश्मन भी नहीं। बहरहाल, बिहार का यह बदलाव बहुत कुछ बयां कर रहा है। इस 'अवसरवादी राजनीति' के मायने बड़े गहरे हैं। इसे यूं समझें -
विपक्ष को हल्की राहत
महाराष्ट्र में हालिया तख्तापलट चौंकाने वाला था। विपक्षी दल सदमें में थे। बिहार में भी ऐसी ही तैयारी थी। विपक्ष का आरोप है, जेडीयू से निष्कासित आरसीपी सिंह जरिया थे। चतुर नीतीश चाल समझ गए। बीजेपी से नाता तोड़ लिया। तख्तापलट टाल दिया। नीतीश का बीजेपी से अलग होना, विपक्ष को 'ऑक्सीजन' मिलने जैसा है।
नितीश की महत्वाकांक्षा
नीतीश को अपना अस्तित्व बिहार में ही दिखता है। जिसे इस यू-टर्न से सुरक्षित कर लिया है। छवि भले खराब हुई है। इससे वो बेपरवाह हैं। विपक्ष दलों के साथ आ जाने से निगाह देश पर है। अब वे खुद को राष्ट्रीय स्तर पर पेश करना चाहेंगे। नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में। यह उनकी पुरानी हसरत है। जाहिर है, ममता बनर्जी, अरविन्द केजरीवाल, सोनिया/राहुल गांधी के साथ अब एक नाम नीतीश कुमार का भी होगा।
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अब बीजेपी खुलकर खेलेगी
बीजेपी अब तक जेडीयू के साथ थी। गठबंधन का तकाजा था। दोनों पार्टियां अपनी सीमाओं में थी। बीजेपी इसे अवसर के रूप में लेगी। अब वो खुद को सबसे बड़ी पार्टी बनाना चाहेगी। बिहार में। लालू राज और भ्रष्टाचार पर हमला करेगी। आक्रामक अभियान चलाएगी। 2024 से पहले एनडीए से एक पार्टी का अलग होना झटका हो सकता है। लेकिन बिहार में सन्दर्भ अलग है। बीजेपी को कोई गम नहीं। उलटे वो इसे 'मुक्ति' के रूप में देख रही है।
कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के सहारे
कांग्रेस अब दयनीय अवस्था में है। दो राज्यों तक सीमित है। उसके पास कोई विकल्प नहीं। क्षेत्रीय पार्टियों से गठबंधन के आलावा कोई चारा नहीं।
'महागठबंधन' के मन में गांठें
बिहार में जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस साथ आ गए। लेकिन मन में अतीत की कडुवाहटें हैं। एक-दूसरे पर अविश्वास हावी रहेगा। महागठबंधन बन तो गया। लेकिन बुनियाद 'अवसर' की है। ये अभिशप्त रहेगा। नीतीश की छवि से। नीतीश अवसरवादी हैं, यह तमगा उन पर लग चुका है। कब 'पलट' जाएं कह नहीं सकते।
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