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कपड़े की रद्दी में अरबों का खजाना, रीसाइक्लिंग में जुटे स्टार्टअप और डिजाइनर

मुंबई. जलवायु परिवर्तन से जुड़े संकट से बचने के लिए पूरी दुनिया प्रदूषण नियंत्रण उपायों पर काम कर रही है। हवा-पानी-जमीन को प्रदूषण से बचाने की लड़ाई में भारत भी शामिल है। इस कड़ी में न सिर्फ पर्यावरण अनुकूल ईंधन वाले वाहनों को प्रोत्साहन दिया जा रहा बल्कि घरों-कारखानों से निकलने वाले कचरे से निजात के जतन किए जा रहे। देश में हर साल 10 लाख टन से ज्यादा कपड़े की रद्दी निकलती है। महानगरों के कुल सूखे कचरे में एक तिहायी कपड़े की रद्दी होती है। इसे ठिकाने लगाने के लिए सरकार रीसाइक्लिंग को बढ़ावा दे रही है। कपड़ा उद्योग धीरे-धीरे सही दिशा में बढ़ रहा है। छोटी-बड़ी कपड़ा मिलों से लेकर गार्मेंट निर्माता रद्दी को रीसाइक्लिंग के लिए मुहैया करा रहे हैं। लाखों टन रद्दी में अरबों का खजाना छिपा है। फैब इंडिया, द कबाड़ीवाला, ईकोहाइक जैसे कई स्टार्टअप कपड़े की कतरन-चिंदी से घरेलू इस्तेमाल के उत्पाद-स्वेटर, कंबल, बैग, कुशन, कार्पेट, रजाई, फर्नीचर, कागज आदि बना रहे हैं। दर्जनों डिजाइनर्स के साथ एनजीओ भी इसमें जुटे हैं। फटे-पुराने कपड़े-चिंदी जमा करने वालों से लेकर कुशल कारीगरों सहित हजारों लोगों को इस क्षेत्र में रोजी-रोटी मिली है। लाखों लोगों के लिए रोजगार की संभावनाएं है। राजस्थान, गुजरात, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों के शिल्पकार इसमें अहम भूमिका निभा रहे हैं। बता दें कि चिली, केन्या, तंजानिया जैसे कई देशों में विकसित देशों से मंगाया गया यूज्ड कपड़े का अंबार पहाड़ बन गया है। यह कचरा वहां की आबोहवा को बिगाड़ रहा है।

सीटीपी से समाधान
सकुर्लर टेक्सटाइल प्रोडक्शन (सीटीपी) से इसका समाधान हो सकता है। अमरीका-यूरोप सहित कई विकसित देश इसे अपना चुके हैं। भारत, ब्राजील जैसे विकासशील देश पीछे हैं। कपड़े की रीइक्लिंग के कई फायदे हैं। शोधकर्ताओं का दावा है कि इससे कपड़ा उद्योग से होने वाला प्रदूषण 80 प्रतिशत तक कम हो जाएगा। तैयार उत्पाद की लागत 60 प्रतिशत घटेगी। कच्चे माल की खपत 70 प्रतिशत तक कम होगी जबकि बिजली खर्च में 60 प्रतिशत बचत होगी। पेस्टिसाइड, केमिकल की जरूरत कम पड़ेगी। इससे हवा, जमीन और पानी में प्रदूषण कम होगा।

हर साल करोड़ों टन रद्दी
वैश्विक स्तर पर सालाना 9.2 करोड़ टन कपड़ा रद्दी में जाता है। 2030 तक यह 13.40 करोड़ टन तक पहुंच सकता है। केवल 12 प्रतिशत रीसाइक्लिंग हो रही। प्रत्येक अमरीकी साल में 37 किलो कपड़ा फेंकता है। ज्यादातर कपड़े छह से सात बार ही पहने जाते हैं। प्रति सेकेंड एक ट्रक कपड़ा लैंडफीलिंग या डंपिंग ग्राउंड में जाता है। अमरीका में 1.13 करोड़ टन और यूरोपीय देशों में हर साल 93 लाख टन कपड़ा रद्दी में निकलता है। कार्बनडाइ ऑक्साइड उत्सर्जन में फैशन उद्योग की हिस्सेदारी 10 प्रतिशत के आसपास है।

पोलिएस्टर-ङ्क्षसथेटिक चुनौती
दुनिया में आधे से ज्यादा कपड़ा पोलिएस्टर-सिंथेटिक से बनता है। यही सबसे बड़ी चुनौती है। सालाना 1.50 करोड़ टन प्लास्टिक फाइबर इस्तेमाल किया जाता है। इसमें कुछ उत्पाद ऐसे हैं, जिन्हें गलने में 200 साल लग जाते हैं। जलाने पर इनका केमिकल हवा जबकि सड़ाने पर जमीन और पानी दूषित करता है। ऑस्ट्रेलियाइ शोधकर्ताओं का दावा है कि समुद्र की तलहटी में 1.58 करोड़ टन तक माइक्रोप्लास्टिक्स जमा है। नदी-नालों-तालाबों में भी यह भरा है। यह पानी सेहत के लिए खतरनाक है। अमरीकी वैज्ञानिकों के अनुसार 35 फीसद माइक्रोप्लास्टिक कपड़े का है।

समस्या नहीं संसाधन-गोयनका
अपैरल एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल ने गूंज से हाथ मिलाया है। संगठन के अध्यक्ष नरेन गोयनका ने बताया कि निर्यातकों के यहां जो स्क्रैप निकलता है, गूंज के कार्यकर्ता उसे कलेक्ट करते हैं। इससे शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता आदि क्षेत्रों में इस्तेमाल होने वाली चीजें बनाई जाती हैं। गूंज के अलावा कई एनजीओ मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, दिल्ली आदि शहरों में काम कर रहे हैं। रद्दी हमारे लिए अब समस्या नहीं संशाधन है। नई तकनीक-प्रौद्योगिकी से रीसाइकल्ड उत्पादों की फिनिशिंग बेहतर होगी।

पेट बॉटल से यार्न
भीलवाड़ा आधारित संगम इंडिया के प्रनल मोदानी ने कहा कि हम सही दिशा में बढ़ रहे हैं। सूती, पोलिएस्टर, ऊनी और रेशम से बने कपड़े की रीसाइकलिंग शुरू है। ब्लेंड (मिश्रित) फैब्रिक चुनौती है। तकनीक आने के बाद उस पर भी काम शुरू होगा। लोग पेट बॉटल को फेंक देते हैं। उससे यार्न (धागा) बनता है। हमारी कंपनी कपड़ा बनाने के लिए ऑर्गेनिक/रीसाइकल कच्चा माल इस्तेमाल करती है। सीवेज प्लांट का पानी साफ कर हम दोबारा इस्तेमाल करते हैं। दो सोलर प्लांट भी लगाए हैं। वृक्षारोपण के साथ हम वन संरक्षण भी करते हैं।

कतरन-चिंदी से गुदड़ी
फैबइंडिया गुदड़ी ब्रांड के तहत कई उत्पाद बेचती है। कंपनी के होम व लाइफस्टाइल विभाग की प्रमुख आरती रॉय ने बताया कि कपड़े जयपुर में कतरन-चिंदी से कार्पेट बनाए जाते हैं। बाड़मेर की धनु तहसील में एंब्रायडरी की जाती है। पश्चिम बंगाल और गुजरात के कच्छ से कंपनी को गुदड़ी मिलती है। एंब्रायडरी, क्विलटिंग व कान्था कशीदाकारी के लिए क्लस्टर बनाए गए हैं। प्रत्येक क्लस्टर में 100 से 200 महिलाएं (कारीगर) काम करती हैं। अकेले फैब इंडिया के साथ 50 हजार कारीगर, 12 हजार किसान व 900 वेंडर जुड़े हैं।

29.65 करोड़ का कारोबार
रेशामंडी के संस्थापक मयंक तिवारी ने कहा कि पर्यावरण के प्रति सजगता बढ़ी है। लिहाजा रीसाइकल्ड उत्पादों की मांग बढ़ रही है। कोशिश हो रही कि कम से कम अपशिष्ट निकले। रीसाइक्लिंग बाजार का आकार 2021 में 2,400 करोड़ रुपए के आसपास रहा, जो 2027 तक तीन हजार करोड़ रुपए को पार कर जाएगा। देश के सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) में कपड़ा उद्योग का योगदान 4 प्रतिशत है। वस्त्र-परिधान मिला कर छठवां सबसे बड़ा निर्यातक है। 35 लाख से ज्यादा हथकरघा श्रमिकों सहित 4.5 करोड़ लोगों को इस सेक्टर में रोजगार मिला है।



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