Black Live Matter: क्या अमरीका में नस्लीय भेदभाव और दमन का ज्वालामुखी फूट पड़ा है?
अश्वेत नागरिक की हत्या के बाद उजागर हुआ अमरीका का ‘काला सच’
वॉशिंग्टन (वृत्तसंस्था) - इस समय अमरीका जल रहा है... तडप रहा है... सड़कें आंदोलकों से भर गई है.... नस्लीय भेदभाव और मानवधिकार हनन का अब तक दबाया हुआ ज्वालामुखी पूरी तरह से फूट पड़ा है. अब तक देश के लाखो लोगों में उबल रहे क्रोध को शांत करने की कोशीशें तो बहोत की गई. भारी मात्रा में मानवाधिकारों को कुचलकर उसपर लोकतंत्र की लिपापोती भी की गई.
लेकिन आखिर में यह ज्वालामुखी फूट ही पड़ा. भेदभाव और क्रोध के इस ज्वालामुखी के लावे का प्रवाह जब अमरीकी अध्यक्ष का निवास व्हाइट हाउस की पायदानों तक पहुंचा, तो उसकी गर्मी से डोनाल्ड ट्रम्प के भी पसीने छूट गए और उन्हें बंकर में छीपकर अपने आप को बचाना पड़ा. लेकिन इस हिंसा और आंदोलनों से अपने आप को विकसित और सभी को समान अधिकार दिलाने वाला लोकतंत्र बताने वाले अमरीका का नस्लीय भेदभाव का ‘काला सच’ उजागर हुआ है.
विश्व में अशांति, अमरीका की नीति
1990 में सोविएत रूस धराशायी होने के बाद विश्व में इकलौती सुपर पॉवर बची रही जिसका नाम है अमरीका. अपनी संपन्नता, अत्याधुनिक सामरीक शक्ति और पूंजी की ताकत के बल पर अमरीका पूरे विश्व में अशांति फैलाते हुए अपनी धौंस जमाने का प्रयास करता रहा. कहा जाता है कि, अमरीका की ज्यादातर अर्थव्यवस्था वहां पर मौजूद सामरीक कारखानों में उत्पादित होने वाले हथियारों पर टीकी हुई है. यानी विश्व में शांति अमरीका के बर्बादी का कारण बन सकता है. इसलिए विश्व अशांत रहने का अमरीका पूरजोर प्रयास करता रहता है.यही कारण है विश्व में हमेशा अशांति-तनाव बनी रहें, विभिन्न देशों में अपने इशारों पर नाचने वाली सरकारें बनी रहें और वे अमरीका से हथियार खरीदती रहें, इसके लिए अमरीका सतत रूप से प्रयास करता रहा है. कई बार ऐसा भी हुआ कि, कुछ देशों में अमरीका की नीतियों का विरोध करने वाली सरकारें आईं लेकिन उन सरकारों पर मानवाधिकार के हनन का आरोप लगाते हुए वहां विद्रोह कराते हुए सरकारें गिराई गई है. अपने विरोधी सरकारों को हमेशा अमरीका खूनी दलदलों में डूबोता आया है.
विश्व में अशांति फैलाकर अमरीका हमेशा ही अपने देश में संपन्नता और शांति की स्थापना करने का प्रयास करता रहा है. लेकिन यह सब करते समय अपने देश में अफ्रिकी, एशियाई मूल और गैर श्वेत लोगों के मानवाधिकारों के साथ कैसा बर्ताव कर रहा है, किस तरह से उनके मानवाधिकारों पर कुठाराघात करता रहा है और इतना सब होते हुए भी इस देश में कितनी अभिव्यक्ति की आजादी है, इसके ढोल अमरीकी प्रशासन और उसका पूंजिवादी मीडिया करता रहा है. हालांकि, इस अभियान में पूरा मीडियातंत्र शामिल नहीं है, यह बात अलग है.
मानवाधिकारों का हनन और दमन
कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ता अमरीका को ‘कैदियों का देश’ भी कहते है. क्योंकि कहा जाता है कि, आज अमरीका के जेलों में जितने कैदी है उतनी शायद विश्व के कई देशों की आबादी भी नहीं है. यह बताने की जरुरत नहीं है कि, जेलों में बंद कैदियों में सबसे अधिक मात्रा अश्वतों की ही है. अमरीका में रोजगार के मामले में भी अश्वेत काफी पीछड़े हुए है. उनकी प्रतिव्यक्ति आय भी गोरे लोगों से काफी कम है.प्रशासनिक सेवाओं में एशियाई-अफ्रिकी मूल के अमरीकन लोगों की संख्या काफी कम है. साथ में वहां के अश्वेत लोगों के साथ श्वेतों की तुलना में ज्यादा बार बुरा बर्ताव होता आया है. अश्वेत लोगों को श्वेत लोगों की तुलना में काफी अपमान और हीनता का सामना करना पड़ता है. इसीका नतीजा है कि, 1950 और 1960 के दशक में अमरीका में घनघोर आंदोलन हुए, जिसका नेतृत्व मार्टिन ल्यूथर किंग ने किया था. उस समय अमरीका में ‘ब्लैक पैन्थर’ नाम का संगठन काफी सक्रिय हुआ करता था.
हालांकि, इस स्थिति को बदलने के लिए अमरीका में काफी प्रयास तो हुए लेकिन अश्वेत लोगों के साथ कहीं न कहीं सतत रूप से अन्याय होता ही रहा है. अमरीकी पुलिस को खास तौर पर अमरीका में 9/11 के आतंकी हमले के बाद कुछ ज्यादा ही अधिकार दिए गए है. अगर किसी भी अधिकारी को जरासा भी संदेह होता है कि, कोई आम नागरिक उन पर हमला करने वाला है, तो वे उसे ‘शूट’ कर देते है. खास बात है कि, पुलिस की इस ‘शूटिंग’ में अब तक मरने वालों में ज्यादा तादाद अश्वेतों की रही रही है.
यही बात है कि, जब जॉर्ज फ्लॉयड को पुलिस ने गिरफ्तार किया और एक श्वेत पुलिस अधिकारी डेरेक चाउवीन ने आठ मिनटों तक उसकी गर्दन अपने पैरों से दबाकर रखी, जिसमें उनकी मौत हो गई. इस घटना के बाद पूरे अमरीका में अब तक दबाया गया दमन और मानवाधिकार हनन का ज्वालामुखी फूट पड़ा और कोरोना महामारी से जूझ रहे अमरीका के सामने आंदोलनों का एक और संकट खड़ा हो गया.
ट्रम्प की चेष्टा ने बढ़ा लोगों में गुस्सा
मिनिपोलिस शहर में जॉर्ज फ्लॉयड के टॉर्चर का वीडियो वायरल होने के बाद ही अमरीका के वाशिंग्टन डीसी से लेकर फिलाडेल्फिया, डेनवर, लॉस एंजील्स, अटलांटा समेत कई शहरों में हिंसा भड़क उठी. इन आंदोलनों में केवल अश्वेत ही नहीं, बल्कि श्वेत नागरिक भी बड़ी संख्या में शामिल हुए, जोकि निश्चित ही मानवता के लिए अच्छी बात कही जा सकती है.ऐसे में इन आंदोलकों को गंभीरता से लेने की बजाय राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प जोकि खुद एक धूर दक्षीणपंथी विचाराधारा के माने जाते है और उनके कार्यकाल में अमरीका में परंपरावादी तत्वों को काफी तरजीह मिली हुई है. उन्होंने आंदोलनकर्ताओं को संजीदगी से लेने की बजाय उन्हें बदनाम करने का प्रयास किया. इससे और भी ज्यादा लोगों का गुस्सा फूट पड़ा
आज अमरीका में कोरोना महामारी से मरने वालों की संख्या 1 लाख से अधिक हो चुकी है और अमरीका में लॉक डाउन के कारण करोड़ो लोगों को अपना रोजगरा गंवाना पड़ा है. इस स्थिति में अमरीका प्रशासन तथा डोनाल्ड ट्रम्प की सरकार की कमियां और खामियां उजागर हुई, जिससे इस हिंसा और आंदोलनों की आग में घी डालने का काम किया.
चूंकि, अमरीका का आर्थिक और राजनीतिक तंत्र का चरित्र पूंजिवादी है, इसलिए वहां आम लोगों से ज्यादा पूंजिवादियों के पक्ष में सरकार का पलडा भारी रहता है. खास तौर पर 2008 की वैश्विक महामंदी के बाद वहां के पूंजिपतियों के लिए सरकाीर तिजोरीयों के द्वार खोले गए, जिससे वहां के करोड़ो लोगों को बेरोजगारी और महंगाई का सामना करना पड़ रहा है. इसमें भी ज्यादातर अश्वेत नागरिकों का समावेश होता है.
उजागर हुआ खोखलापन
अमरीकी प्रशासन और वहां का मीडिया हमेशा ही देश में होने वाले मानवाधिकारों का हनन, दमन, हत्याएं और अफ्रिकी-एशियाई मूल के लोगों के साथ होने वाला नस्लीय भेदभाव को दबाने का काम कर रहा था. लेकिन अब इतने दिनों तक दबाए रखा यह ज्वालामुखी पूरी तरह फूट पड़ा है और अमरीका का एक ‘काला सच’ इससे सामने आ गया है.दूसरे देशों में हमेशा अपनी नाक घुसेड़कर वहां मानवाधिकारों के हनन होने की बातें कहता रहा है. लेकिन अपने देश में किस तरह से मानवाधिकारों का हनन हो रहा है, इस पर अमरीका हमेशा लीपापोती करता रहा है. लेकिन अब उसके घर में होने वाले मानवाधिकारों का हनन उजागर होने के कारण चीन और रूस जैसे देशों अमरीका विरोधी देशों के हाथों में एक मुद्दा मिल गया है.
इस पूरी स्थिति में कम से कम आने वाले समय में अमरीका कुछ सबक लेगा, ऐसी अपेक्षा करना अनुचित नहीं होगा. लेकिन अपनी पूंजिवादी और श्वेतवर्णीय वर्चस्ववादी व्यवस्था का खात्मा अमरीका कभी कर पाएगा, इस पर आज भी पूरी दुनिया में आशंकाएं उपस्थित हो रही है.
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